रासलीला का एक अर्थ काम पराजय लीला भी है - आचार्य राहुल

रासलीला का एक अर्थ काम पराजय लीला भी है - आचार्य राहुल

अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट
श्रीरामेश्वरम् -  भगवान ने गोपियों के मन की इच्छा को पूरी करने के लिये महारास किया। ये गोपियां कोई और नहीं बल्कि स्वयं श्रीरामजी के समय के बड़े - बड़े सिद्ध ऋषि - मुनि ही हैं। रासलीला का एक अर्थ काम पराजय लीला भी है। काम के बीच में रहकर काम पर विजय पाना ही महारास लीला की महत्ता है। भगवान श्रीकृष्ण हजार गोपियों के बीच में रहते हुये भी कामदेव पर विजय पाकर योगेश्वर कहलाये। रासलीला के माध्यम से प्रभु ने अलौकिक प्रेम का वर्णन किया है। महारास में भगवान श्रीकृष्ण व गोपियों के निश्छल प्रेम का प्रमाण मिलता है।
                             उक्त पावन कथा ब्रह्मलीन अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती के दीक्षित शिष्यों की टीम हिंगलाज सेना बेमेतरा द्वारा आयोजित संगीतमयी श्रीमद्भगवत महापुराण के तृतीय दिवस कथा व्यास राहुल दुबे ने अपने मुखारविंद से कही। समुद्र तट पर स्थित श्रीशंकराचार्य मठ में महारास लीला की विवेचना करते हुये आचार्यश्री ने कहा कि महारास में पांच अध्याय है , उनमें गाये जाने वाले पंच गीत पंच प्राण है। जो भी इन पांच गीतों को भाव से गाता है , वह भव पार हो जाता है और उन्हें वृंदावन की भक्ति सहज प्राप्त हो जाती है। महारास में भगवान श्रीकृष्ण ने बांसुरी बजाकर गोपियों का आह्वान किया। शरद पूर्णिमा की रात यमुना तट पर महारास का आयोजन किया गया जिसमें जितनी गोपी , उतने श्रीकृष्ण ने महारास की थी। रासलीला में भगवान श्रीकृष्ण को छोंड़कर किसी अन्य पुरुष का जाना निषेध था जबकि भगवान भोलेनाथ ने गोपी के वेष में महारास का दर्शन किया था। महारास लीला द्वारा ही जीवात्मा और परमात्मा का मिलन हुआ। अर्थात महारास का मतलब ही परमात्मा और जीवात्मा का मिलन हैं। महारास में जो रस था , वह सामान्य रस नहीं था। वो कोई सामान्य नाचने वालों का काम नहीं था , बल्कि इसे प्राप्त करने के लिये गोपियों को सर्वस्व त्यागना पड़ा था। ब्रज भूमि परमात्मा की प्रेम भूमि हैं , जहां के कण-कण में कृष्ण हैं। भगवान कृष्ण-गोपियों के महारास लीला को जो श्रद्धा के साथ सुनता है, उसे भगवान के चरणों में पराभक्ति की प्राप्ति होती है। आज की कथा में आचार्यश्री ने श्रवण कराया कि भगवान वृंदावन को छोड़कर मथुरा के लिये प्रस्थान किये। उसके बाद वहां अपने अनेक भक्तों पर कृपा कर उन्होंने जरासंध , कालयवन जैसे अनेकों राक्षसों का उद्धार करते हुये अंत में कंस का भी उद्धार किया।रूक्मिणी विवाह की कथा प्रसंग पर उन्होंने बताया कि कुंडनपुर के राजा राजा भीष्मक की कन्या रूक्मिणी जब भगवान की अलौकिक लीलाओं को रुक्मिणी ने सुना तब प्रभु श्रीकृष्ण को ही पति स्वरूप में प्राप्त करने की इच्छा रखी। उन्होंने पत्र में अपने मन के भाव को गुरु के माध्यम से श्रीकृष्ण तक पहुंचाते हुये अवगत कराया कि मेरे भ्राता रूकमी के दबाव में मेरे पिता मेरा विवाह शिशुपाल के संग कर रहे हैं किंतु आप के चरित्र को श्रवण कर मैंने मन ही मन आपको ही पति रूप में स्वीकार कर लिया है। भगवान श्रीकृष्ण को जब रुक्मिणी का पत्र मिला तो पत्र पढ़कर श्रीकृष्‍ण को समझ आया कि रुक्मिणीजी संकट में हैं। उन्‍हें संकट से निकालने के लिये श्रीकृष्‍ण ने अपने भाई बलराम के साथ मिलकर एक योजना बनाई और रुक्मिणीजी का अपहरण कर लिया। इससे क्रोधित होकर रुक्मी श्रीकृष्ण का वध करने के लिये उनसे युद्ध करने निकल पड़ा। रुक्मि और श्रीकृष्ण के मध्य युद्ध हुआ था जिसमें कृष्ण विजयी हुये और रुक्मिणी को लेकर द्वारिका आ गये।द्वारिका में बड़ी धूमधाम से रुक्मिणी और श्रीकृष्ण का विवाह संपन्न हुआ।श्रोताओं ने रूक्मिणी-श्रीकृष्ण विवाह का भरपूर आनंद लिया। कथा व्यास ने कथा के महत्व को बताते हुये कहा कि जो भक्तप्रेमी श्रीकृष्ण रूक्मिणी विवाह उत्सव में शामिल होते हैं उनकी वैवाहिक समस्या हमेशा के लिये समाप्त हो जाती है। कथा प्रसंग के अनुसार बीच बीच में श्रद्धालुओं को झांकी का भी दर्शन सुलभ हुआ।