श्राद्ध और तर्पण से मिलती है पितृ ऋण से मुक्ति - अरविन्द तिवारी!

श्राद्ध और तर्पण से मिलती है पितृ ऋण से मुक्ति - अरविन्द तिवारी
रायपुर - हिन्दू धर्म में श्राद्ध का विशेष महत्व है। भाद्रपद की पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक सोलह दिनों तक का समय श्राद्धपक्ष कहलाता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार पूर्वजों के आत्मा की शांति और उनके तर्पण के निमित्त श्राद्ध किया जाता है। इस संबंध में विस्तृत जानकारी देते हुये अरविन्द तिवारी ने बताया प्रत्येक मनुष्य को लिये देवऋण , ऋषिऋण और पितृऋण रहता है जिसमें मनुष्य स्वाध्याय करके ऋषिऋण से , यज्ञ करके देवऋण से और श्राद्ध - तर्पण करके पितृऋण से मुक्त होता है। वैसे तो भारत के अनेकों स्थानों पर पिंड दान किये जाते हैं , लेकिन पिंडदान के लिये गया तीर्थ सर्वोत्तम माना गया है।श्राद्धपक्ष में पितरों का तर्पण करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है और मोक्ष प्राप्त होता है। श्राद्ध में पितरों का तर्पण करने के लिये तिल , जल , चाँवल , कुशा , गंगाजल आदि का इस्तेमाल जरूर करना चाहिये। वहीं केला , सफेद फूल , उड़द , गाय के दूध , घी , खीर , जौ , मूंग , गन्ना के इस्तेमाल से पितर प्रसन्न होते हैं। श्राद्ध के दौरान तुलसी ,आम और पीपल के पेड़ पर जल चढ़ायें और सूर्यदेवता को सूर्योदय के समय अर्ध्य जरूर दें। पितरों को याद करने , तर्पण एवं श्राद्ध करने के लिये इन दिन का समय तय किया गया है। पितृपक्ष भाद्रपद मास की पूर्णिमा और आश्विन माह कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होते हैं। इस साल पितृपक्ष 29 सितंबर पूर्णिमा से शुरू होकर 14 अक्टूबर विसर्जन तक चलेगा। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार श्राद्ध पक्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक कुल सोलह दिनों तक चलता है। इन सोलह दिनों में हर दिन अलग-अलग लोगों के लिये श्राद्ध होता है , इसका प्रत्येक दिन महत्वपूर्ण है। वैसे अक्सर यह होता है कि जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु हुई है ,श्राद्ध में पड़ने वाली उस तिथि को उसका श्राद्ध किया जाता है। लेकिन इसके अलावा भी यह ध्यान देना चाहिये कि नियम अनुसार किस दिन किसके लिये और कौन सा श्राद्ध करना चाहिये ?

किसको करना चाहिये श्राद्ध ?

श्रुति स्मृति पुराणों के अनुसार पिता के श्राद्ध का अधिकार उसके बड़े पुत्र को है लेकिन यदि जिसके पुत्र ना हो तो उसके सगे भाई या उनके पुत्र श्राद्ध कर सकते हैं। यह कोई नहीं हो तो उसकी पत्नी कर सकती है। हालांकि जो कुंआरा मरा हो तो उसका श्राद्ध उसके सगे भाई कर सकते हैं और जिसके सगे भाई ना हो , उसका श्राद्ध उसके दामाद या पुत्री के पुत्र (नाती) को और परिवार में कोई ना होने पर उसने जिसे उत्तराधिकारी बनाया हो ,वह व्यक्ति उसका श्राद्ध कर सकता है।

सोलह तिथियों का महत्व

पूर्णिमा , प्रतिपदा , द्वि‍तीया , तृतीया , चतुर्थी , पंचमी , षष्ठी , सप्तमी , अष्टमी , नवमी , दशमी , एकादशी ,  द्वादशी , त्रयोदशी , चतुर्दशी और अमावस्या ये श्राद्ध की सोलह तिथियां हैं। उक्त किसी भी एक तिथि में व्यक्ति की मृत्यु होती है चाहे वह कृष्ण पक्ष की तिथि हो या शुक्ल पक्ष की। श्राद्ध में जब यह तिथि आती है तो जिस तिथि में व्यक्ति की मृत्यु हुई है उस तिथि में उसका श्राद्ध करने का विधान है। इसके अलावा प्रतिपदा को नाना-नानी का श्राद्ध कर सकते हैं। जिनकी मृत्यु अविवाहित स्थिति में हुई है उनके लिये पंचमी तिथि का श्राद्ध किया जाता है। सौभाग्यवती स्त्री की मृत्यु पर नियम है कि उनका श्राद्ध नवमी तिथि को करना चाहिये क्योंकि इस तिथि को श्राद्ध पक्ष में अविधवा नवमी माना गया है। यदि माता की मृत्यु हो गई हो तो उनका श्राद्ध भी नवमी तिथि को कर सकते हैं। जिन महिलाओं की मृत्यु की तिथि मालूम ना हो , उनका भी श्राद्ध नवमी को किया जाता है। इस दिन माता एवं परिवार की सभी स्त्रियों का श्राद्ध किया जाता है।इसे मातृ नवमी श्राद्ध भी कहा जाता है। इसी तरह एकादशी तिथि को सन्यास लेने वाले व्य‍‍‍क्तियों का श्राद्ध करने की परंपरा है जबकि सन्यासियों के श्राद्ध की ति‍थि द्वादशी (बारहवीं) भी मानी जाती है। श्राद्ध महालय के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को बच्चों का श्राद्ध किया जाता है। जिनकी मृत्यु अकाल हुई हो या जल में डूबने , शस्त्रों के आघात या विषपान करने से हुई हो उनका चतुर्दशी की तिथि में श्राद्ध किया जाना चाहिये। सर्वपितृ अमावस्या पर ज्ञात-अज्ञात सभी पितरों का श्राद्ध करने की परंपरा है। इसे पितृविसर्जनी अमावस्या , महालय समापन आदि नामों से जाना जाता है।